पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पचम सर्ग १२१ नेह, लखन-सस्मरण-मत्त हो, लखन-चरण मम लखन-सतरण-भाव मम, लखन-आमरण देह । १२२ लक्ष्मण-लक्ष्मण धर्म मम, लक्ष्मण-लक्ष्मण कम, लखन-लखन हिय मर्म मम, लखन-लखन मम शर्म । + १२३ मोरटा हे मेरे पर पार, बढि आवहु या सिन्धु बिच, नया लेहु उबार, डग-मग, ङग-मग ह रही । १२४ कलरव कूजन करि रहे, भाव विहगम-वृन्द, निशा सिरानी, जगि उठ नव उमग के छन्द । १२५ नील गगन मे रुपहरी छहरी छटा अपार, मानो नील तडाग मे वहीं दुग्ध की धार । १२६ दिन-मणि प्राची सो मिल्यो विहँसि, हुलसि, हरषाय, जग जाग्यो, भाग्यो तिमिर, जग्यो बिग-समुदाय । ४१६