पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३५

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पचम सर्ग प्राची सो दिन-मणि मिले, मिट्यो विरह-दुख द्वन्द, विकसे जन-गण-हिय-कमल, विलसे मन-मकरन्द । १३४ प्रकृति, किरण-जल अमल में, छल-छल उठी नहाय, नील-गगन-अम्बर पहिरि, लहराई हरषाय तरणि-मिलन तै प्रकृति को, भयो विरह-दुख अन्त, किन्तु विरहिनी के हिय हूक अचूक उठन्त हृदय-नीड मे भाव-खग, बैठे बोलत बोल, कहा तिहारो प्रात है, कितै किरण-कल्लोल ? १३७ दक्षिण अटवी मे दुर्यो, मम दिग्भानु ज्वलन्त, याही ते मन-गगन मे, छायो तिमिर अनन्त 1 १३८ भाव विहगम वृन्द हे, करहु तरणि आह्वान, क्यो हू तो या विरह-निशि को होवे अवसान । ४२१