पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४३९

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पचम सर्ग १५७ उजडि गई गुजन मयी, मम सयोग निकुज, ठाढो भयो पहार सौ, यह वियोग को पुज । तुग शिखर,-हिय वेदना, शिलाखड-दिन मास, विकट चढाई है गई, दरस-परस की आस । १५६ गिरि पै घने विषाद के जमे गुल्म सर्वत्र, रोमाचक सस्मरण वे, भए विकम्पित पत्र । टेढी, सॅकरी, कटकित, बनी प्रतीक्षा-बाट, दृग-जल,-गिरि निर्भर उमडि चित्तहि करत उचाट । आशका गह्वरन मे, भभके हिसक जीव, गरजि गरजि के ह रहे, पद-पद पे उद्ग्रीव । पुनर्मिलन-क्षण -दूरता, कुज्झटिका-सी फैलि, विरह-शैल पै करि रही, स्वप्निल क्रीडा-केलि । ४२५