पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४१

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पचम सर्ग विकट पहाड प्रदेश के, पर पिया को देश, गिरि-लघन विन किमि मिल पुन्य प्रेम परमेश । १७० सोरठा विरह-शैल के पार, पीतम, तुम क्यो रमि रहे ? आवहु, अहो उदार, दुर्गम गिरि को भेदि के । १७१ क्षीरोदधि में ज्यो रमे, अशिशायी भगवान, नम मम हिय उदधि मै रमहु ऊम्मिला-प्रान । १७२ जैसे सागर मे उठत, केलि मयी कल्लोल, हिय-समुद्र को करहु त्यो आन्दोलत हिडोल । १७३ ज्यो समुद्र मन्थन भए, निकसे चौदह रत्न, त्यो तुम सश्रम करहु प्रिय, हियं मन्थन ने यत्न । मृदु परिरम्भण-भार प्राणाकर्षण की बने, को मेरु-सुमन्थन-दड, रसरी पूर्ण अखड । ४२७