पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४२

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ऊम्मिला ढरकावहु मो हृदय मथि, प्रिय, नवनीत प्रवाह, सरसावहु अनुरागिणी, अनबोली मनचाह । १७६ मेरे हृदय-समुद्र को जल श्यामल गम्भीर, अतल तलातल' लौ भरी, वामे सचित पीर । १७७ हिय-सागर तै उठि रही बडवानल की आह, प्रिय, बँचहु दोउ भुजन तै, अन्तरतर को दाह । १७८ कब लौ हिय हहरे, कहहु, एकाकी विक्षुब्ध ? कब लौ आवोगे बिहॅसि, हे प्रिय, मन्थन-लुब्ध ? चिन्ता सम्नम के बडे ग्राह नक्र विकराल, या समुद्र में बढि रहे, सुनहु, अहो व्रतपाल 1 १८० नीलगगन सम तव स्मरण, झलकत सिन्धु मझार, पै थिर रहत न एक छिन, मेरो पारावार । ४२८