पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४३

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पचम सग परछाई सस्मरण की, कम्पित ह्व-बै जात, लहरन सम यह उठत है हिय-विछोह अकुलात । १८२ चलित, थकित, नित व्यथित, इत, अमथित हियको सिन्धु, याहि करहु कर्षित , मथित, हैं मम पूरन इन्दु 1 १८३ शशि, मम नभ मे उदित हवै, मथित करहु हिय-सिन्धु, युग कपोल-तट पै छिटकि, झलके श्रम-कण बिन्दु । १८४ पूरण ताहि न जानिए, पूर्ण ताप बिन जोय, ताही ते हिय-उदधि मे भर्यो अनलमय तोय । १८५ रोम-रोम जो भरि गए तो यह ऊनो प्रेम, हहरि हहरि हिय हारिबौ, यहै पिरीतो नेम । १८६ विप्रयोग-बडवाग्नि जो सोखे सागर नीर, तौ, फिर सहज सनेह की रही अधूरी पीर । ४२६