पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४५

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पचम सर्ग १६३ कबहुँ नयन-खिरकीन तै, कूदि हृदय गेह, प्रात्मलीनता मिस करहु बरबस मोहि अदेह । हियनिधि मम अनमोल तुम, तुम मम काजर-रेख, दृग-कनीनिका तुम बने, तुम मम नेह-विवेक । जा दिन ते तुम वन गए, करिके अवध अनाथ, तव ने नयनन को छुट्यो, काजरहू को साथ । १६६ हौस मिटी, काजर छुट्यो, मच्यो नयन मे कीच, कारी भाई पीर की परी पुतरियन बीच । १६७ ये तैरे-तैरे फिर, नयना निपट अधीर, युग लोचन मे है रही दरस-काकरी-पीर । सोरठा ये नैना अनजान, प्रकट करत हिय दरद को, ज्यो कोऊ नादान, घाव दिखावलु आपुनो । ४३१