पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४६

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जम्मिला १६६ जीवन-डगरी मे छिपी निशि अँधियारी पीर, तकि-तकि के कोउ दै रह्यो, विरह वेदना तीर । २०० भाति-भाति के राग की घपल भ्रान्ति उद्भ्रान्ति, करिबै को आई यहाँ, नवल क्रान्तिः उत्क्रान्ति । २०१ चल्यो जात हो यि सहज, बिध्यो नेह के शूल, सिसकि रही पीडा-लली, भई लाज उनमूल । २०२ घसकि-धसकि, मिटि-मिटि गए, मधुर मनोरथ-मौन, बात पूछिबे को, कहहु, रहयो भौन मे कौन ? कित संजोग? कित सरलता? कितै सुनिश्चय-साज ? इत-उत जित-तित ते उमडि, परी विकलता आज । २०४ क्षत-विक्षत हिय बहि रह्यो, लगे प्रश्न के तीर, मौन निरुत्तर वेदना मन, चित, धुनत शरीर । ४३२