पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४७

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पचम सर्ग चिन्ता-कठिनी लिखि रही प्रश्न-चिन्ह प्रति वार, क्यो? कित का? कैसे ? कहाँ ? को फैल्यो विस्तार । युग अनादि के गरभ सो निकसी जीवन-बाट, युग अनन्त लौ जात यह, ज्यो नभ-गग विराट । २०७ भेदि लोक लोकान्तरहि, भेदि अड-ब्रह्माण्ड, निरिणी सम फटि परी, जीवन-डगर प्रकाण्ड । २०८ निखिल सृष्टि के चक्र पै, मण्डित यह मग-रेव, जिमि ललाट पै खचित है, बिथा-कथा के लेख । २०६ या पथ-रेखा पै धरत, हौले-हौले पॉय, ढूंढति-ढूँढति तुमहि, हौ आइ गई एहि ठाय । २१० दीख परत अजहू, सजन, डगरी लम्बी मोहि, हृदय हारिबे लगत है, यह अनन्त पथ जोहि । ४३३