पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पचम सर्ग २१७ गिरि परिये, फिर चलिय उठि यहै नेम-निरवाह, दूर पास जानत नहीं, लगन मगन की राह । २१८ सोरठा क्षत आशा के शूल, जीवन के पथ मे बिछे, हिय की भोरी भूल, मग की कॉकरियाँ भई । २१६ ? अहो दुरे क्यो समय के अन्तर-पट मे जाय आवहु, पीतम, अवधि की यह यवनिका हटाय २२० भग्न मनोरथ की बिछी जीवन-पथ मे धूर, परि के घटना चक्र मे, भई कल्पना २२१ रि-भूरि लौ धूरि ही धूरि दिखाई देत, धूरि-धूमग्नि है रह्यो, अंग-अंग हृदय समेत । २२२ पवन ग्राका के म रजकण नाचि उडाय, छिन-छिन उडि-उडि धूलिकण नैनन में परि जॉय । ४३५