पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५२

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म्मिला यो जीवन-पथ मे निरखि, विकट निदाध-प्रकोप, हिय तै उठि, मन गगन मे, गरजि उठत घन तोप । २३६ असुवन की पावस झडी, लगत आपुही प्राप, ज्यो वर्षा शीतल करत, खर निदाघ-अभिशाप । २३७ कारे, कजरारे, भरे, निरे मेष के कोट, मन-नभ मे करि उठत है, भय-विद्युत-विस्फोट । २३८ हहरत हिय, लहरत पवन धहरत गहर उमग, ऑखिन ते बहि बहि उठत दुसह वेदना-रग । २३६ अँसुवन तै जीवन-डगर, पकमयी है जात, फिसलत-फिसलत यात्रिणी, चली जात अकुलात । २४० ज्यो निदाघ दुख देत है, त्यो पावस को काल, ये दोऊ ऋतु करत है हिय को हाल बिहाल । ४३८