पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५३

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पचम सग २४१ जब अधीरता बढत है, तब कछ धीरज देत, आवत शरद् मुहावनी पूरन इन्दु समेत । २४२ अति वियोग मय छिनन मे, अति अधीर पल मॉहि, दृढ प्रतीति जागत हिये, रहत कुसशय नाहि । २४३ हिय-अाकाश निरभ्र, मुद, सुस्थिर भासित होय, शारदीय नभ रहत ज्यो, नील, निरभ्र, अतोय । २४४ निपट शुद्ध विश्वासमय, मन-दिगन्त है जात, चिर सनेह के सस्मरण हिये उठत मुसकात । २४५ मगन लगन अम्बर रुचिर, होत धीरतापूर्ण, गहर सिन्धु नद होत ज्यौ, युग तट लो आपूर्ण । २४६ ज्यो पूरन शशि उदित है, लसत गगन मझार, त्यो विलसत हिय-गगन मे, पीतम-छबि साकार । ४३६