पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पचम सर्ग २५३ दुञ्चिन्ना की हसन्नी धधकन है दिन रैन, नऊ हृदय ठिठुरत रहत, लहत न इक छिन चैन । २५४ चली जात पथ गामिनी, करन गिगिर को अन्त, पुनि, मग मे मिलि जात है, सशय को हेमन्त । २५५ शीतल हिय, शीतल चरण, शीतल सब बहिरग, अन्तरग शीतल अमित, शीतल सब रंग-ढग । २५६ शीतल दिशि, शीतल निशा, बड़ी-बड़ी विकराल, ऊवत चिर-पथ-गामिनी, होत न प्रात काल । २५७ इत सशय, चिन्ता उतै, जित-तित सभ्रम मूक, कहिये का सो ? किमि ? कहहु, हिय बनियाँ दो-टूक ? २५८ गरजत बरसत माघ के मेध घिरत सब ओर, कॅपत चरण, लरजत हृदय, होत शब्द घनघोर ।