पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५६

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अम्मिला २५६ ज्यो अनचाहे अतिथि गण, घर घेरत है प्राय, गगन घेरिबे मे न त्यो, माघ-मेघ शरमाय । २६० आशका-घन धाय, सगय के हेमन्त मे, भय-भैरव-उद्घोष सो भरत हृदय असहाय । २६१ रोम-रोम कॅपि उठतु है, ठिठुरि जात अँग-अग, ऑखिन ते चुइ परतु है, हिय-वेदना अनग । २६२ निर्जन जीवन-डगर मे चली जात यह कौन ? कितै देस याको ? बन्यो कित धौ याको भौन ? २६३ साजन, तुम मेरे निलय, तुम हो मेरे देस, प्रो परदेसी, तुमहि मैं ढूंढत देस-विदेस । २६४ छाडि शिशिर नैराश्यमय, सशयमय हेमन्त, पावत तव पथगामिनी, पुनि चिर प्राश बसन्त । ४४२