पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४५८

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ऊम्मिला २७१ मम अर्चन-साधन-चरण विचरि रहे वन-वीथि कहहु, करौ सम्पूर्ण किमि कमल-समर्पण रीति ? २७२ या मन के कासार मे उठत तरगे लोल, मौन कल्पना, लहर सम, करत रहत कत्लोल । २७३ कम्पित मर मे हिय-कमल डुलि-डुलि उठत अथोर, आत्म-निवेदन की सतत, आकुल उठत मरोर । २७४ देखत नहि तुम प्रेम को नेम, अहो रसराय, छाडि चिरन्तन नेह-निधि, रमे विपिन में जाय । २७५ तुम निष्ठामय, तुम सुदृढ, निपट धीर व्रतपाल, कहा नेह ऊनो परत, जब हिय होत विशाल ? २७६ सोरठा वन से हाथ बढाय, लेहु पूर्ण निधि आपुनी, हृदय-कमल अकुलाय, कछु-कछु मुझंत जात है।