पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६

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ऊम्मिला 1 ४० पर्य को पर बैठ गई वे दोनो इस उपवन मे, मानो लावण्यो की जोडी उदित हुई कानन में, सीता-भुज-वेष्टिता-ऊम्मिलाऽविष्टा-सीता मुग्धा,- एक दूसरी से होती थी शोभित दोनो लुब्धा । ४१ "देखो जीजी, एक कहानी माँ ने मुझे कही थी, एक कपोती जव उपवन मे उड-उड खेल रही थी मॉ आई थी कुसुम-चयन को सँग आई मै भी थी, तब यह कथा सुनाई थी, मै गोदी म बैठी श्री ४२ वचन अम्मिला के सुन सीता हो उत्फुल्लित बोली- मानो डोल उठी उपवन में पञ्चम स्वर की टोली- "अच्छी है ऊम्मिला, --कहेगी मुझसे वे सब बतियाँ- जैसे चकई कथा सुनाया करती सारी रतियाँ ।" ४३ "जीजी, मै तो पहले तुम से सुन लूगी कुछ बाते, तब अपनी रसना खोल्गी, जान गई ये धाते,- तुम सुन-सुन कर चुप हो जाती, मुझको नहीं बताती, एक कहानी कहने मे तुम मुझसे हो सकुचाती।" तब सीता निज मृदुल अोष्ट द्वय को अति धीरे-धीरे- खीच ले गई बहन ऊमिला के कर्णाम्बुधि तीरे, और कहा कुछ, जिसको सुन कर कनीयसी मुसकाई, मानो भ्रमर-गीत को सुनकर कलियाँ हो हरखाई ।