पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४६२

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ऊम्मिला २६५ द्वार देहरी पे घरे चिर अनुराग-प्रदीप, कब ते उत्कठा ललकि, बैठी द्वार-समीप । २६६ कासो कहियत प्रेम को नेम ? कहा अनुराग कहा दरस की लालसा ? कहा हिये को दाग ? २६७ परिभाषा चिर प्रेम की निपट अटपटी होय, वाको तत्व निगूढ अति, जानत है कोउ कोय । २६८ प्रेम सगुण कोऊ कहत, कोउ निरगुन कहि देत, कोऊ द्वैत प्रभाव को कहत सनेह-निकेत । २६६ मो मन प्रेम-स्वरूप है कम्पन मय अविराम, स्वर, लय, यति, गति मय बन्यो प्रेम रूप अभिराम । प्रेम-चटपटी हृदय की, प्रेम-अटपटी बात, प्रेम-झूमिबो मत्त है. इतै उतै बतरात ।