पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४७२

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ऊम्मिला ३५५ ? का जानौ क्यो होत है प्रेम-बावरे प्रान छिन-छिन कसकत रहति है , हिय की नेह-उठान । उठि-उठि आवति है ललकि, हृदय-समर्पण-हूक, एक-लग्नता-मिस लगत, प्राण-समाधि अचूक । जव स्मृति हंसि, कहि जात कछु, विगत दिनन की बात, नब संजोग के सस्मरण हिय मसोसि अकुलात । ३५८ भरत हृदय, बरसत नयन, सरसत हिय की बेलि, सूने मानम-गगन मे, करत वेदना केलि । ३५६ प्राण कहत, हम बावरे, हृदय कहत, हम रक्त, मन बोलत, हौ ध्यान रत, जीवन, चरणासक्त । प्रेम, योग-सयुक्त हुदै रह्यो सकल अस्तित्व, हिय, अनादि तै, करि चुक्यो वरण त्वदीय पतित्व । ४५८