पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४७६

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ऊम्मिला ३७६ मेरी जीवन-वल्लरी, तव अवलम्बन-हीन, निरादृता सी है रही, धूरि-धूसरित, छीन । ३८० तुम द्रुम मम अश्वत्थ दृढ, लेहु बेलि लिपटाय, अवलम्बन' की साध मम, क्यो असफल रहि जाय ? ३८१ तुम आश्रयदाता, सजन, रस जीवन-दातार, या भू-लुठित बेलि कौ, नेकु सम्हारहु भार । ३८२ ? या सुकुमारी बेलि कौ, कौन बडो है भार भुज-अवलम्बन तनिक तै, कै जैहै उद्धार । ३८३ छाय रहौ तव वक्ष पै, केवल एती चाह, बस, इतनोई सो रह्यौ, या जीवन मे दाह । ३८४ लिपटि लपैटौ भुजन ते, तुमहि जीवनाधार, छाय, निछावर कै रहौ, बस इतनी मनुहार । ४६२