पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८

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स्वर्ण छटा से जब आलोकित होती पर्वत श्रेणी, तब मानो रवि किरण गूंथती थी उसकी शुभ वेणी, पर्वत माला अपने हिय का हिम पिघला-पिघला कर, सूर्य देव को जलार्घ्य देती थी हिय को विकसा कर । गा कल-कल-विभास-स्वर भरने सब दौडे फिरते थे, एक दूसरे के अड्को मे हो प्रसन्न गिरते थे , उस पार्वत्य प्रदेश-भूमि मे नित ऐसी लीलाये,- नृत्य सदा करती थी होकर अति क्रीडा गीलाये । ५२ रगमञ्च गान्धार देश था चिर नर्तकी प्रकृति का, जहाँ खेल होता रहता था प्रकृति नटी की कृति का, दुगम छोटे-छोटे पर्वत-मागे अनेक खचित थे- मानो भूधर के ललाट पर चिन्ता-चिन्ह रचित थे । पर्वत पादस्था उपत्यका शोभित यो होती थी- आरोहण की लय अवरोहण में मानो सोती थी , पर्वत की शुभ्रता और भू की कालिमा निराली,- मानो श्वेत कृष्ण केशो की बनी हुई थी जाली । ऊपर से भरने गाते थे , नीचे से सब पक्षी, मानो लगा रहे थे प्राणो के पण भान विपक्षी, आँख फाड कर देख क्या रही हो, ऊम्मिला सलोनी? कथा सुन रही हो कि नही, री, तुम छोटी सी छौनी?"