पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८७

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पचम मर्ग ४४६ श्रवण, नयन, भुख, नासिका, मन, शरीर, अंग-अग, ना जाने कब के बिके, अपने पिय के मग । ४४७ ? अब कैसी ध्वनि-निपुणता, कैसो स्वर-पचार शब्द थके, रसना मगन, छुट्यो भव-रव-भार । ४४८ सोरठा मौन धारि, मन वारि, मन ही मन आराधिवौ, हिय के नैन उघारि, रहमि देखिबौ पिय-छटा । ४४६ अन्तर पट करि राखिये, अपनी प्रीति नवीन, मन की मन मे जो रहै, कबहु न होवे छीन । ४५० प्रीति लजीली रहत नित, घूघट-पट की प्रोट, कबहु न बाको दीजिए, जग-नयनन की चोट । ४५१ प्रेम-सुगोपन हित निरत, अहै श्याम-पट एक, जासौ लगै न नेह को, जग कुदृष्टि की रेख । ४७३