पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८८

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ऊम्भिला सरल नन्तु को पुज यह, बन्यौ सुगोपन-मत्र, तन्तु वाय मन बनि रह्यौ, जीवन भयो सुयत्र । ४५३ ताना लै एकान्त को, बाना-वचन-निरोध, कारीगर ने पट बुन्यौ, हिय मे धारि प्रबोध । ४५४ मन ने यह शुचि पट बुन्यौ, लै गोपन के तार, मौन-सॉवरे-वस्त्र को, फैलि रह्यो विस्तार । श्यामल अचल मौन को, ओडि चिरन्तन प्रीति, दरसावतु है मौन मय, हृदय-समर्पण-रीति । कर कम्पन, लोचन सजल, विचलित विकल उसॉस, कबहु-कबहुँ कहि देत ये, गुप्त प्रीति-रस-फास । कैसे इनहि निवारिये, ये नहि छाडत सग, हठ करि रहत' समीप नित, करत मौन-रस भग। ४७४