पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४८९

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पचम सर्ग झलकत लोचन कपन मे प्रीति-विश्रा-अतिक ज्यो झलकत सत्वृतिन मे हिय को अमल विदक । मौन श्याम पट में दुरी, जदपि प्रीति सुकुमार, तऊ सकल पसार म चरचा भई अपार । ४६० छानी मानी राखिबौ, सबै चहत रस-रीति, फैलि जात पै वह, यह बडी जु प्रीति अनीति । 2 कैसे प्रीति दुराइए है अति कठिन दुराव, हाव-भाव रंग-ढग सौ, छलकि उटत हिय-चाव । ४६२ गुप-चुप के अरमान वे, गुप-चुप को हिय-दान, गुपचुप के रस भाव, सब प्रकट होत अनजान । तक न मुख तै बोलिए, या मे है बड भेद, अनबोली हिय लगन मे, मिलत भक्ति निर्वेद । ४७५