पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९०

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अम्मिला ४६४ प्रात्मवन्त निर्द्वन्द ढे, प्रेम-योग रसभत्त, अनबोले प्रिय चरण में, करिये हृदय प्रदत्त । अव्यवसायी बुद्धि ते, प्रेम योग ना होय अव्यभिचारी भक्त जे, पावत पीतम सोय । कल्मष रहित, प्रशान्त चित, प्रेम मगन सब काल, तेई पावत आपुनो, सजन प्रीति प्रतिपाल । ४६७ ? सतत ध्यान को धुन लगै, तब कित शब्द-प्रमाद भूलि जात उन छिनन मे, या तन हू की याद । ४६८ शब्द ब्रह्म हू ते परे, पीतम की पद-पीठ, देखि सकत सोई, खुल जिनकी अन्तर दीठ । सोरठा ठाढी कब सो प्रीति, चूंघट-पट की अोट है, डिगी जात रस-रीति, पिय, वियोग-अन्तर हरहु । ४७६