पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९३

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पचम सर्ग ४८२ नारि, क्यो आवत कुविचार ? यो पूछत है नर यह हू है उन सजन की, एक अदा सुकुमारि । ४८३ लीला भय, लीला निरत, लीला करत अपार, पाप, पुण्य मिस करि रहे, निज लीला विस्तार। ४९४ ढे मोहित इत- उत अटकि, भटकि जात नर-नारि, मार्ग भ्रष्ट ह्ये जात है, प्रिय की डगर विसारि। ४८५ गिरि परिबौ, उठिबो पुन , नेकु न रहिबौ हार, पीतम की या गैल मै, कैसौ हार विचार? ४८६ हिय मे लिए चिरन्तनी प्यास - प्रणोदित प्रास, युग अनादि त हौ, चली आवतु हौ, सोल्लास । ४८७ अब पाये, पाये पिया, भाजि न सकिही और, पट - अचल मे बॉधि कै, राखहुँगी बरजोर । ४७६