पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९४

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अम्मिला ४८८ मम युग - युग की साधना, या जीवन मे आय काम ध्रुव, अपनो पीतम पाय । र है पूरन ४८९ जब हक़ है पिय दरस, तब का हलै है हिय-बीच ? तव मो मन ह वै जायगो, कालातीत नगीच । ४६० क्षर - अक्षर तै, काल ते, कारण हूँ ते जो झलकै, तो रिक्त हिए, क्यो न होय भरपूर ? ४६१ अटल परन्तप सजन मम, गुडाकश, उबुद्ध, उनकी पद रज ते बनत हिय तद्रूप, विशुद्ध । ४६२ काम, क्रोध, मद, लोभ तजि, मत्सर, द्वेष विकार, चलिए पिय की डगरिया, यहै चिरन्तन प्यार । ४६३ भव्य राजप्रासाद यह, सुदृढ प्राचीर, तुम बिन सब सूने भए, हे धनुधारी धीर । ४८०