पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९५

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पचम सर्ग ४६४ उचटि रमन मन वन विषै, भावत नाहिन भोन, रहित चित्त औदास्यमय, जीभ रही गहि मोन । दखिन पौन, री, मद भरी, हौले - होल प्राय, मेरे आँगन डोलि तू, पिय-बतियाँ बतराय । कहु, कहु, कैसे है सजन ? एरी दखिन बयार, गिर पे केतो बढ्यो, जटा-जूट को मार ? कहा ४६७ ? केती गहरी, बोलि री, भई विवाई पाय कुलिश शूल केते गाए तलुअन बीच समाय ? ४६८ रघुकुल की श्री कीर्ति वह, मिथिलाकुल की कान, कैसी है मम अग्रजा, कोमल पुहुप ममान ? ४६ जिनके स्वप्निल नयन मे, देश, काल, ग्राकास, आर्य राम वे, करत किमि, कहु, वन-बीच निवास । ४८१