पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९८

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अम्मिला ५१२ लता गुल्म तरु बाग के, लगत अनमने दीन, पुहुप दुखारे ले रहे, गन्ध हीन, श्रीहीन । ५१३ अवध विकल, जनपद विकल, विकल अवध की गैल, वन हुलसित, वन-जन मुदित, मुदित विन्ध्य को शल । ५१४ विकट नियम यह गम को, जानत है कोउ कोय कछ व्यक्तिन को हिय दरद, जग को मरहम होय । एक खपै, वर, जग जिए, यहै धर्म को तत्व, नतरु निमिष मे जगत मब, वे जैहै नि सत्व । निश्चय, यह गृह, अवध यह, यह सरयू को तीर, राजभवन, उद्यान, स्ने भए अधीर । सब ५१७ निहचै, हिय सूनो पर्यो, मम कुटीर हू शून्य, रजत बालुकामय भए, नदी-तीर हूँ शून्य । ४८४