पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/४९९

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पचम सर्ग मानु मुमित्रा देवि को, धीर हृदय हहरात, भरत बन्धु को नयन-जल, नैकु नाहि ठड्गत । बढि-बढि प्रावत नेन नं, विकल द्विवेणी-धार, फुर, उन विन हिय-धेर्य है, भयो अधीर उभार । ५२० पै व्याकुलता तै कहू, मर्यो करन है काम ? जीवन-मूल्य चुकाइए, दै-दै चौखे दाम। ५२१ जीवन-धारण है कर्यो हँसी-खेल कछु नाहि, विना प्राण-उत्सर्ग के, ठौर नाहि, जग माहि । ५२२ पूज्य श्वसर निज प्राण दै, थाप्यो नव आदर्श, अब दैहै इक नाम तं, प्रण-वात्सल्य-विमर्श । ५२३ त्याग और सन्यास की परिभाषा अब एक, भरत पूर्ण सन्यास है, भरत त्याग तप टेक । ४८५