पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५

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श्रीलक्ष्मणचरणार्पणमस्तु यह मिला है। यह प्रन्य, वर्षों के उपरान्त अब प्रकाशित हो रहा है। इस विलम्ब को मैं क्या कहूँ ? अपना बहुधन्धीपन ? अपना प्रमाद ? प्रकाशन के प्रति मेरा अपना विराग ? मेरा नैष्कर्म्य-भाव? बड़ा कठिन है यह स्व-विश्लेषण-कार्य । मनुष्य स्वभावतः अपने प्रति पक्षपात करता है। अपने को यथावत् देखने में वह हिचकता है। अपनी नग्नता को वह निज के अचेतन और अर्धचेतन के आवरण मे लपेटे रहता है। इस दुर्बलता से मैं मुक्त नहीं हूँ। इस कारण मेरे लिये यह कठिन है कि इस विलम्ब को यथार्थ रूप में जान सकूँ । कदाचित् जो बाते मैंने ऊपर गिनाई है वे सभी इस विलम्ब के लिये उत्तरदायी है जब यह प्रयास प्रारम्भ हुआ था, तब से अब तक परिस्थितियों मे और मुझ मे अनेक परिवर्तन हो गए है। और, एक प्रकार से यह कहा जा सकता है कि इन सब परिवर्तनो, इस सब उथल-पुथल के बीच, मिला के स्तवन की लालसा और उस स्तवन को प्रकाश मे लाने की इच्छा-चाहे वह इच्छा बॉझ ही क्यो न हो-मेरी जीवन-सगिनी रही है। मुझे इस गुण-गान मे कितनी सफलता मिली है, इसका अनुमान मैं नहीं लगा सका हूँ। मेरे लिये इतना ही अलम् है कि मुझे अम्मिला माता की कथा कहने की प्रेरणा मिली । जीवन मे साधना का अभाव है। माता ऊम्मिला के पुनीत चरित्र का बखान करने के लिये साधक होना, भक्त होना, श्रद्धायुक्त होना और सुष्टु कलाकार होना आवश्यक है । मुझ मे इन गुणों का नितान्त अभाव है। फिर भी, सती अम्मिला की कथा कहने की प्रवृत्ति मेरे मन मे जागी, यही क्या कम सौभाग्य की बात है? हॉ, तो माता अम्मिला के स्तवन की लालसा मेरी जीवन-सगिर्नी रही है। मैंने इस कथा का आरम्भ जिस समय किया था, वह समय अब इतिहास में परिणत हो गया है। क्यो ? इसलिये कि मैंने इस कथा को आज से सैतीस वर्ष पूर्व आरम्भ किया था। सन् १९२१-२३ के डेढ वष के कारावास-काल में मैंने इसे लिखना प्रारम्भ किया। देश के प्राय. पचास-साठ सहन जन उन दिनो कारागार में डाल दिये गए थे । उत्तर प्रदेश के हम कई सहन प्राणी, जो राजनीति चेतना-युक्त थे, पकड़ लिए गए थे। उसर प्रदेशीय कायस समिति के सदस्य के नाते