पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५०१

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पचम सर्ग मन मानौ मानत नहीं, भटकि जात वा गेल, जहाँ रुदन की हाट मे, विकत स्निग्धता-तेल । हँसि-हॅमि सहिये वेदना, कहत ज्ञान यो बात, रोय लीजिए कबहुँ लो, यो कहि मन विलखात । ५३२ जब अधरन ते झरत है ललिन हास्य के फूल, तब खटकतु हे दृगन मे, गलित रुदन के शूल । ५३३ जब प्रकटत है अधर त कोमल हास-विलास, ताई छिन चुइ परत है दृग कमक उदास । ललित हास्य, विगलित रुदन, फुल्ल बदन, दृग आर्द्र, ये प्रसाद विभु ने दिए, कै प्रसन्न करूणा ! ५३५ झलकत ज्यो नभ वक्ष पै, नैश तारिका-माल, त्यो हिय मे तपकत रहत, रजित व्यथा-प्रवाल । ४५७