पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५०४

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ऊम्मिला रसमाती घहरत सदा मगन लगन की बाढ, अलस दैन्य कैसो वहा, जहा सनेह प्रगाढ ? ५४६ होत जात है नेह-नद अब अति गहर-गभीर, निज सागर दिशि बढि रह्यौं, श्री यमुनैव सुधीर । अवश मिटैगो एक दिन, यह प्रवास' को त्रास, निहचै इक दिन होइगो, सागर-हृदय निवास । ५५१ नित्य, सनातन, ज्योतिमय, मेरे पिय की कान्ति, उनके चिन्तन, ध्यान मे, कितै दैन्य ? कहें भ्रान्ति ? विगतज्ज्वर ढे, दैन्य तजि, धरिय ध्यान मन लाय, नित पीतम को ध्याइए, सुख-एषणा विहाय । कबहुँ न करिये प्रार्थना, कहिय न कातर बैन, हिय को सदा बनाइए ध्यान, भक्ति, रति ऐन । ४६०