पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५०९

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पचम सर्ग जहा मिलन को लास्य है, जहँ सँजोग-माधुर्य, नहा विरह-नाडव अथिर, नहं वियोग-प्राचुर्य । बनी भजन प्रच्छन्नता, अग्नि चड, विकराल, दरस चाह की वहि चली, ललकि लपट दुन लाल । ५८० भए भसम वा अग्नि मे, मबै कुगल अम छेम, एक वस्तु यह वचि रही, शुद्ध प्रेम को नेम । छिन-छिन ज्यो-ज्यो तपतु है, त्यो-त्यो निखरत रग, खूव बनायो ईश ने, अग्नि-प्रेम को सग । ५८२ लोभ, लाभ, सुख, धाम, धन, लौकिकता, क्रुसलात, प्रेम-पन्थ जो चलिय, तौ, भसम करिय ये सात । ५८३ लघु लौकिक उपचार ते होत न नेह-निबाह, ऐडी-बैडी, अटपदी अहै नेह की राह । ४६५