पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५१०

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ऊम्मिला ५८४ ज्ञानानल ज्यो दहत है अज्ञानान्ध कार, त्यो विकार की, विरह की अग्नि करत है क्षार । सोरठा कसर न कछ रहि जाय, विरह ज्वाल धधके अमित, सैत गई पिय पाय, कहै न यो कोउ अन्त से प्रम भावना तो अहै, अन्वषण सायास, जाको आदि न अन्त है, ऐसो अथक प्रयास । ५८७ प्रीतम मति गति अनुसरण, अहै प्रेम को तत्व, प्रेम कहा ? है खोइबो, अपनो क्षुद्र निजत्व । ५८८ देखिय अनहकार त, अपनी आत्म - निवेदन - भाव म, केसो सदा लघुत्व, ? आत्म गुरुत्व ५८६ अनसरिये सब काल म, प्रियतम की पद-रेख, आकुल ब न बिसारिये, हिय को अमल विवेक । ४६६