पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५११

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पचम सर्ग पुण्य प्रेम मादक अहै, किन्तु न रहित विवेक । प्रेम मत्त, छॉडत नहीं निज विशुद्धि की टक । ५६१ जानत हौ, मानत नही, कसकन पीर अधीर, जानत हौ, दृग ते छलकि उठन नीर हिय चीर । जानत हौ, यह प्रेम को पन्य अटपटो होय, हृदय या गल पै चलत, अपुनपो खोय । जानत हौ, सब बात, पै, यि तै कहा बसाय ? सिसकत, मचलत, हॅसत कछु, वा मारग चलि जाय । एक विवशता-सी अहै, हिय लगिबे की वात, बरबस सिच जैबौ परत, जब यि ललकि लुभात । ५६५ रात दिना के दरद को, लेत विहॅसि हिय मोल, फिर खोयो-खोयो फिरत, नैनन मे मद घोल । ४६७