पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५१४

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ऊम्मिला ६०८ वा दिन जब आई घडी पाणिगहन की, आह, हिय मे तब कितनौ हतौ, आतुर, अमल उछाह । ६०६ धरकि रह्यो हो बेग तै मेरो हिय सुकुमार, उन तन झिझकत रहि गई, नैन उघारि निहारि । ममात्मजा यह ऊम्मिला - कर गहु, लक्ष्मण धीर । तात चरण बोले गिरा यो सागर गभीर । उनने कम्पित पाणि गहि, भर्यो हिये रस-रंग, उन लोचन मे प्यार हो, मो दृग भक्ति तरग । आह सुदृढ कर - गहन वह, मम अवलम्बन - भाव, मोहि स्मरण है वा निमिष, मिटि गौ द्वेत-दुराब । मिली ऊम्मिला लखन मे, लखन ऊम्मिला आय, उत्तरीय सौ बॅधि गयो, मेरो अचल जाय ।