पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५१५

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पचम सर्ग वह गठबधन, हिय चलन, पाणि - गहन वह मूक, वाई छिन जागी हिए, रस-भावना मलूक। गठबधन वह ना हतो, वह न हतो पट-बन्ध, वह नो जीवन-गाँठ ही, वह प्राणन को फन्द । यज्ञ, अनल, नक्षत्र, शशि, सूर्य, लग्न, शुभ वर्ष, ये क्षर, प्रेम के साक्षी भए सहर्ष । अक्षर यज्ञ-हुताशन की बढी, जब ज्वाला उत्ताल, तब हम दोउन के, मनो, हिय ह्वै गये निहाल । ६१८ स्वाहा ! स्वाहा 1 को उठी हुती सुध्वनि गभीर, ता छिन स्वाहा दै गई, अह-भावना-पीर । उन सँग अग्नि - प्रदक्षिणा पूर्ण भई जा काल, तब ते अर्पित हदै गयो, हृदय भूलि निज हाल ।