पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५२०

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ऊम्मिला यह वियोग हू वै रह्यो, अब सयोग-प्रतीत, धृति गृहीत मय है चल्यो कछु-कछु द्वन्द्वातीत । ६४५ तपत चिरह धूनी, भई मति-गति कछुक समान, हौले-हौले हटि रह्यो, यह अन्तर अज्ञान । ध्यान योग ही मै झलकि, मिलत मधुर सयोग, कहा संयोग-वियोग को छूटि जायगो भोग ? ६४७ घरकहु मत, हे हृदय तुम, करकहु मत, हे नैन, दरकहु मत, तन-भाड हे, उफनहु जनि मन-फैन । ६४८ होहु उपरमित शमित नित, धरहु ध्यान, धरि धीर, पीतम आए गेह मम, बने चिरन्तन पीर । आज वेदना-रूप धरि, पाए सजन सुजान, लेहु बलयाँ हुलसि, हिय, करहु समर्पित प्रान ।