पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५२२

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ऊम्मिला अरी ऊम्मिले, बावरी, छटा निहारहु आज, भीतर-बाहर सजन के, लखहु अटपटे काज । कबहूँ आवत है सजन, बने माघ मेह, प्रलयकर प्लावन भरत, मोरे आगन-गेह। ६५८ गरजत, हहरत, करत है, भीम भयकर घोष, घन • गर्जन-उद्घोष मिस प्रकट होत पिय-रोष । झकझोरत तन सजन, बनि झझानिल-सचार, दिक्-दिगन्त लौ होत है, जड थिरता सहार । घन-गर्जन? अथवा अहै यह पिय धनु-टकार ? किवा उनकी सुनि परत, यह गभीर हुकार ? बने शीत हेमन्त की, ठिठुरावत अँग-अग, कुज्झटिका बनि पिय भरत, दृग मे धूमिल रग ।