पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५२३

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पचम सर्ग ६६२ कबहू विलसत गगन मे, पिय बनि पूरन इन्दु, पुनि कबहू चुइ परत है, बनि-बनि सीकर विन्दु । बरसन कबहू उपल बनि कबहु बने जलधार, कबह बनि' घन बीजुरी, चमकत सौ-सौ वार । पतझड की पीडा बने, बने बसन्त विलास, मरण-जनम के वक्ष पै, करत रहत पिय गम । ६६५ पात-विलगता मिस भयो, उनको प्रकट विराग, नव किसलय-दल मिस प्रकट भयो रुचिर अनुगग। देत मृत्यु-सदेश प्रिय, प्रकटे पतझड-काल, थिरक उठे कोपलन मे, देत सजीवन ताल । पत्र लता, मे, बेलि म, द्रुम-वल्लरी मझार, फैलि रहयो है छलकि यह, मेरे पिय को मार । ५०६