पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५४५

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पष्ठ सर्ग २७ राम आज भी वही राम है, जो कल तक थे वनवामी, वही वेश है, वही भाव है, सदा एक - रस, अविनाशी हुअा पूर्ण वनवाम काल, वन---- जाग उठा, रावण हारा,--- सीता मिली, हुआ तप मुमफल, मिटा जगत का अँधियारा,-- उनके चरण - प्रताप - मात्र से यह जादू हो गया, सही किन्तु अविचलित, नित्य अनिगित बने आज भी गम वहीं । स्वस्ति-पाठ की ध्वनि उच्चारित- हुई,-मभा निस्तब्ध श्रुति गायन के स्वर-साधन मे, जन - रव - गति नि शब्द हुई, शब्द ब्रह्म बन कर, यह लहरा उठी पताका सस्कृति की, हुई सास्कृतिक विजय पूर्ण श्री- आर्य राम की मति धृति की, नही शस्त्र विजिता यह लका,- यहाँ विजय है शास्त्रो की, यह जय है तापस आर्यों के शुद्ध शब्द - ब्रह्मास्त्रो की।