पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५४६

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अम्मिला स्वप्निल-सी, राम २६ उठे राम निज सिहासन से,- धन्य मजु छवि धन्य योग निद्रिता, जागृता, वह लोचन छवि भिल-मिल सी, धन्य-धन्य उन्नत ललाट, जिस- पर मण्डित चिन्तन-रेखा, धन्य सभी जन की आँखें जो बनी की छवि-लेखा, बलि जाऊँ आजानु बाहु वे, चिर रक्षक, जग-पोषक वे, धन्य वरद कर कमल अमल वे, जन रजन, जनतोषक वे । ३० वह विशाल वक्षस्थल जिस पर, रावण-शर के चिह्न बने, वे सुन्दर कपोल द्वय, जिन से--- ढरके करुणा - अश्रु घने, - धन्य चरण वे, जिनने उत्तर--- को दक्षिण से जोड़ दिया, जिनने नव-पथ निम्मित करके मानव गति को मोड़ दिया,- बलि जाऊँ, वे चरण बने जो प्राश्रय दाता शूलो के, वे पद जो विचरे है शोधन- करते जन - मन - भूलो के ।