पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५४९

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पप्ठ सर्ग युग कर मे ले राज मुकुट शुभ, गज-गति मे आगे जाकर, घरा राम ने नृपति विभीपण- के शिर, मुकुट ज्योति-भाकर, किया प्रतिष्ठित राज-दण्ड फिर दक्षिण कर मे नर पति के, चन्दन लेपन किया भाल में लकेश्वर स्वधर्म मति के, फिर सागर - नद-नदियो का जल कुश में ले मस्नक सीचा, या कि त्याग की परिसीमा को प्रभु ने धीरे स खीचा । देख राम-लीला यह, कुछ-कुछ-- लकेश्वर के अधर हिले, रोके भी न रुके, नयनो में- आकर ऑसू विन्दु खिले, सादर अभिवादन कर लौटे अपने सिहासन पर राम, शत-शत कण्ठो से ध्वनि उट्ठी, जयति राम, जय-जय निष्काम, तब श्री रामचन्द्र की वाणी मेघ घोष इव गहर गभीर, सभा भवन में उठी विकम्पित, करती भीम दुर्ग प्राचीर ।