पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५५

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स्वर्गादपि गरीयसी प्यारी, जन्मभूमि का पल्ला- खीचा है दुष्टो ने, बोला है स्वदेश पर हल्ला, कौन हृदय है जो कि न उबले निज समाज की क्षति मे? कौन अॉख है देख सके जो माँ को इस दुर्गति मे ? आज लहलहाती उपत्यका रक्त धार से सीचो । रोष कॅपा दे तुम्हे, कोष से खर तलवारे खोचो । भूखी सिहिनियो के सम बस टूट पडो तुम रण मे । कर दो प्यारी मातृभूमि की व्यथा दूर तुम क्षण मे ' कोधित राजकुमारी के सुन उन वचनागारो को- थर्रा गई मेदिनी, सुन कर धनु की टकारो को | उछल पडा बल्लियो हृदय का रोष, कृपाणे चमकी, डोल उठे दिग्गज मतवाले, और दिशाएँ दमकी । वृद्ध नागरिक बोल उठे, सुन बेटी, राजदुलारी,- इन्ही भुजाओ ने तो की थी मातृभूमि-रखवारी ? खड्ग थाम सकती है, यद्यपि अब कुछ निबल पडी है, हृदयो मे प्राणो की धारा अब भी प्रबल बडी है । ८६ यह धारा जब बह निकलेगी तब अरि दल कॉपेगा, कण्ठ हमारा कडखे का स्वर फिर से आलापेगा। चले आज हम, और हमारी बहुएँ सग चलेगी, अाज हमारी ये तलवारे अरि का झुण्ड दलेगी ।