पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५५०

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अम्मिला में अटक "राजन, राजेश्वरी, आज क्या कहूँ? सँकोची शब्द बडे, कैसे उद्गीरित हो ? वे तो- अन्तस्तल पड़े, मैं वाणीपति भी, अभिलाषी- हूँ कि मौन वरणीय गहूँ, कैसे शब्दातीत बात अनिर्वचनीय कहूँ हिय मे, मन मे, चिन्तन मे है उलझी इतनी बात पडी, जिन्हे नहीं कह सकती वाणी, शब्दो की न बिसात बडी । हृदय की राजन, आप समझते है सब निपट कृतज्ञ भाव मेरे, भवत प्रति, किष्किन्धेश्वर प्रति, सुहृद्भाव मम बहुतेरे, परिवर्तित सुधर्म यह, जिस विधि से अनुसरित हुआ, उसे देख कर रामचन्द्र का हिय कृतज्ञता भरित हुआ, धर्माचरण, निरत, तत्परता- लख-लख दाक्षिणात्य जन की- अति प्रसन्न है राम, हुई है- पूर्ण तुष्टि उसके मन की।