पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५५३

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पष्ठ मग ? ? कौन साध थी वह जीवन की? कैसी थी मन में पागा जो कुछ मन में था, उसको, नप, कैसे प्रकट कर भापा विश्व-विजय की चाह नहीं थी, और न रक्त-पिपामा थी, 'केवल कुछ सेवा करने की उत्कण्ठित अभिलाषा थी, इतना था विश्वाम कि हम है लोकोत्तर धन के स्वामी, लोक हिताय वॉटना जिसका, धर्म हमारा निष्कामी 1 यही साधना, यही कामना, यही भावना ले मन मे, इधर-उधर विचरे है लेकर यही भाव हम निर्जन में, इस प्रणोदना ही से प्रेरित, हुए सकल मरे शुद्ध विचार-प्रचार -आचरण यही राम लक्ष्मण का धर्म, जो कुछ भी थोडी सी सेवा उसका श्रेय कभी- नही राम को, उसके तो है यश के भाजन आप सभी । कृत कर्म,