पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५५५

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पष्ठ मग वह था ४७ महामहिम रावण का, मेरा, नही व्यक्तिगत था झगडा, आत्मवाद, साम्राज्यवाद का अनमिल भेद बड़ा, विकट सभट, उद्भट सेनापनि, महा प्रतापी रावण थे, वे प्रचण्ड जगदाक्रान्ना थे, उनके पोषक भाव भू-अर्जन, पर-गासन, मारण, रण, धन, मुख-उपभोग, विलास,- इतने ही तक, हन्त, रह गया, सीमित उनका मनोविकास । न थ, पाठा इधर राम न बचपन ही से पढा लोक रक्षा का उधर वली रावण न अपन साजे विश्व-विजय के ठाठ, इधर त्राण के भाव, उधर थ- जग-आक्रमण-भाव दुर्घप, अत अवश्यम्भावी था यह कि हो राम-रावण-सघर्ष, एक खेद है यह शस्त्रोमृत । हो कर सत्य हुआ विजयी, । यदि अशस्त्र जय होती, तो वह होती पूर्ण विशुद्ध नयी ।