पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५५६

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ऊम्मिला विचार कुरूप, ४६ यदि श्री रावण के विचार भी हो जाते मेरे अनुरूप, यदि वे किसी तरह तज सकते अपने सबल तो फिर सत्य जानिए, नरपति, जग कुछ का कुछ हो जाता, मानव-हिय का असुर-भाव वह चिरनिद्रा मे सो जाता, यही दुख है कि मैं वीर वर रावण-हृदय न जीत सका, इतना भर ही नहीं रह गया, दशरथ नन्दन के वश का । रावण हारे, खेत रहे वे, पर बदले न भाव उनके, सभी जानते है कि बडे थे वे पक्के अपनी धुन के, अन्तिम समय, रणागन में जब विनत लखन पहुंचे सम्मुख, तब वे बोले 'रामानुज, है- एक बात का मुझ को दुख, तुम दोनो हो महा प्रतापी पर हो स्वप्न लोक-बासी, मत समझो कि बन सकोगे तुम अज्ञान शोक - नाशी। जन ५४२