पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५६

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६० फिर तो, मेरी विमल ऊम्मिले, चली अनोखी सेना, अश्व हिनहिनाए, कुँवरी का चमका भाला पैना । आगे वृद्ध वीर थे, पीछे थी गान्धारी नारी,-- विजय-भावना ने ज्यो मति का शुभ अनुगमन किया,री। ६१ रणोन्मत्त वृद्धो ने अपनी सुध-बुध सब बिसराई, मानो अश्वो पर आ बैटी भूर्तिमती टकुराई, शुभ्र केश दाढी के मास्त मे यो लहराते थे- विजय निशान आर्यगण के वे मानो फहराते थे । १२ जिन कर मे भाले थे, वे थे वृद्ध किन्तु बलशाली, उन पर पड कर नाच रही थी रवि-किरणे मतवाली , उन बूढ़े हाथो मे शोभित होते थे यो भाले, मानो स्थविर सँपेरे लाये विषधर काले-काले । १३ थी वधूटियाँ अति कटोर धनु-धारण-क्षमता-शाली, अरि-दल के कलुषित हृदयो मे तीर बेधने वाली , उनकी कृष्ण वेणिया सुन्दर पट से यो आवृत थी, यज्ञ-धूम्र-कुण्डलियाँ मानो वेदी से परिवृत थी । चाप-मौर्वी ने उन कोमल स्कन्धो को घेरा था, कोमलता के घर कठोरता ने डाला डेरा था, वह कोमल सुस्कन्ध देश ओ' वह कटोर प्रत्यञ्चा,- रण देवी से प्रार्य-विजय की करती थी शुभ याञ्चा ।