पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/५६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पष्ठ सर्ग सदा, है साम्राज्य-दाद का नाशक, दशरथ- नदन राम है भौतिकता-वाद विनाशक, जन- मन रजन सदा, धन्य विभीषण आप, हुए जो सहायक यो, अर्थ-वाद मय स्थिति में प्रकटे आप सत्य - परिचायक यो, लोग कहेंगे कि यह विभीषण है स्वदेश-रिपु, कुल द्रोही, हुआ देश-आक्रान्तक-रिपु के- विभीषण निर्मोही । मम निष्काम फैल रहा है यह भी जग में, अति मिथ्याभिमान, राजन, कि हम देश-हित कर सकते है, अपने त्यक्त प्राण, राजन, राष्ट्रधर्म कैसे हो सकता जन-गण का ऐकान्तिक धर्म ? पक्ष-समर्थन सदा राष्ट्र का, हो सकता है निपट अधर्म , मिथ्या इष्टदेव सस्थापन, है अज्ञानी जन की बान, यों असत्य के पीछे मरना, आत्म-हनन सम, है अज्ञान ।